सत्गुरू देव जो हमेशा ज़िंदा रहने वाले जगत-गुरू, मालिक, मुर्शिद और पीर है। जब सत्गुरू कबीर साहिब जी काशी नगर को त्याग कर मगहर में अलोप होने के लिए गए तो दोनों ही दीन ;हिन्दू और मुसलमानद्ध जो सत्गुरू देव जी को गुरू मानते थे, उनमें आपसी झगड़ा हो गया। वे उनके शरीर का अपनी-अपनी रीति अनुसार दफन और संस्कार करने के लिए हठ कर रहे थे। परन्तु सत्गुरू देव जी का अन्त समय शरीर ही नहीं मिला। इस तरह दोनों कौमों का झगड़ा समाप्त हो गया। दो चादरें और फूल मिले जो दोनों कौमों ने आधे-आधे बांट लिए और अपनी-अपनी रीति अनुसार अंतिम लिया की।
हमें ऐसा सत्गुरू मिला है जो सबका मालिक है और गुरू पीर है। उसने हमारे मन में ऐसा भेद ज्ञान का तीर मारा जिससे हमें अपने स्वरूप का ज्ञान हो गया।
हमें ऐसे सत्गुरू मिले हैं जिनके शरीर के अंग तेज पुंज के हैं। ऐसे तेज़ पुंज के शरीर में झिलमिल-झिलमिल करता नूर झलक रहा है। ऐसे प्रकाश स्वरूप शरीर का कोई रूप, रेखा और रंग नहीं है।
हमें ऐसे सत्गुरू मिले हैं जो तेज़ पुंज प्रकाश रूप हैं। ऐसे प्रकाश स्वरूप् सत्गुरू को मैं अपना तनमन धन अर्पित करता हूं। चाहे कुछ भी हो इसकी हमें कोई परवाह नहीं।
हमें ऐसे सत्गुरू जी मिल गए हैं जिन्होंने दशम द्वार में लगे हुए बज्र किवाड़ अपनी कृपा से खोल दिए हैं और हमें सत्यलोक में पार ब्रह्म प्रभु के दरबार में पहुंचा दिया है, जहां किसी की पहुंच नहीं है।