सतगुरू देव जी हमें मृत्य लोक से अजब नगर में ले गए। जहां का नज़ारा अद्भुत है। वहाह्म तेज पुण्ज के प्रकाश से झिलमिल-झिलमिल हो रही है। हम उस नज़ारे को देखकर वहां चादर ओढ़ कर सो गए अर्थात् उस ब्रह्म लोक के आनन्द में लीन हो गए।
वह ब्रह्मलोक ऐसा द्वीप है जो अगम अनहद उस लोक की महिमा को जाना नहीं जा सकता। वहां का मार्ग भी अगम-अनाहद है और मोक्ष भी अगम अनाहद है।
सतगुरू देव जी का उपदेश पारस रूप है। हमारा चिŸा लोहे की तरह कठोर है। सतगुरू का उपदेश पारस रूप जब हमारे दिल में धारण होता है तो एक पलक में यह सोने की तरह शुव बन जाता है अर्थात् मुक्ति का अधिकारी बन जाता है। सतगुरू के उपदेश से प्राणी का जीवन पलट जाता है।
सतगुरू जी कहते हैं कि हमारा दिल कठोर लोहे की तरह है जिसे जंग रूपी मैल लगी हुई है। सतगुरू जी ऐसे कुशल लोहार हैं जो हमारे मन को उपदेश से शुव करते हैं और युगों-युगों से मन पर जमी हुई मैल को अपने उपदेश से दूर कर देते हैं। सतगुरू जी का उपदेश प्राणी के मन को सोने की तरह शुव बना देता है।
हम पशु समान अज्ञानी जीव, कीट-पतंगे की मानिन्द हैं। सतगुरू जी का स्वभाव भंृगी जैसा है। जैसे भृंगी छोटे कीट-पतंगों को पकड़ कर अपने घर में बंद करके उन्हें अपनी भिन्न-भिन्नाहट सुनाकर भृंगी ही बना लेती है। इसी तरह सतगुरू अपने उपदेश से अज्ञानी जीव को अपने जैसा बना लेते हैं। जिस तरह भृंगी मरणासन्न कीट-पतंगों के अंगों को पलटकर अपना रूप दे देती है। इसी प्रकार सतगुरू जी का भी ऐसा ही स्वभाव है। वह अपने सेवक को अपने जैसा ही बना लेते हैं।