जिस प्रभु को इन आंखों से नहीं देखा जा सकता, ऐसा अलख पुरूष स्वरूप जो ब्रह्म है उसका सिंहासन सुन्न मण्डल अर्थात् दशम द्वार में है। वह सदा अमर है और उसकी कोई जाति, वर्ण, दीन और मज़हब नहीं है। सब जगह भरपूर होकर विराजमान है। सतगुरू जी कहते हैं कि ऐसे कर्ता पुरूष सबके मालिक से मैं कुर्बान जाता हूं।
पारब्रह्म प्रभु बन्धन मुक्त, सन्धि रहित अर्थात् उसे किसी के साथ जोड़ा नहीं जा सकता। उसकी गति कोई नहीं पा सकता। करोड़ों ही बैकुण्ठ लोक ऐसे प्रभु के नाखुनों के रूप में है। ऐसे प्रभु का दर्शन दीदार ऐसा अजब है कि उसकी किसी वाणी से उपमा नहीं की जा सकती। वह अद्वितीय है।
साहिब प्रभु के दरबार में उसकी महिमा के झण्डे झूल रहे हैं और नगाड़े जैसी लगातार गूंज हो रही है। सोहं की धुन से उसका उपमा-गान हो रहा है। नाद बज रहे हैं। ऐसे अगम-अगाध प्रभु के दरबार में अपने मन को ठहरा कर उसके चरण-कमलों का ध्यान धरो।
सतगुरू जी कहते हैं कि हे प्राणी! तू अपने मन और श्वास को सुर्त-निरत से जोड़ कर त्रिकुटी कमल में स्थिर कर और बंकनाल अर्थात् मेंरूदण्ड को सीधा रख कर साहिब के नाम का अभ्यास कर। जब तूं ऐसी धारणा वाला अभ्यास करेगा तो वहां से जो अमृत टपकता है उस अमृत को पी कर अमर हो जाएगा।
सात कंवलों और मेरूदण्ड ;सुष्मना नाड़ी की खोज करो। अपने मन के ख्यालों पर काबू पाकर इन्हें स्थिर करो। पांच तत्व और पच्चीस प्रकृतियां जो मन की सेना है इसे वश में करो। ऐसा करने से जीवात्मा गगन मण्डल में पहुंच जाती है।